राजकुमार फुटेला, न्यूज प्रिन्ट
रुद्रपुर। पंचायत चुनाव के ताजा परिणामों ने भारतीय जनता पार्टी को रुद्रपुर और किच्छा विधानसभा क्षेत्र में कटघरे में खड़ा कर दिया है। तमाम राजनीतिक संसाधनों, वरिष्ठ नेताओं की फौज, बड़े कार्यालय और मंत्री-विधायकों की सक्रियता के बावजूद पार्टी एक भी प्रमुख सीट नहीं जीत पाई।
यह पराजय केवल एक चुनावी असफलता नहीं, बल्कि संगठनात्मक कमजोरी, रणनीतिक भ्रम और नेतृत्व की नाकामी का संकेत मानी जा रही है। अब सवाल यह उठ रहा है कि जिम्मेदार कौन है? टिकट वितरण की प्रक्रिया किसके हाथ में थी? क्या जमीनी कार्यकर्ताओं की राय की अनदेखी हुई? और सबसे अहम, क्या पार्टी नेतृत्व को अब कार्यशैली में बदलाव की आवश्यकता नहीं है? पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच यह चर्चा अब आम हो चली है कि क्या भाजपा की कमान अब ऐसे लोगों के हाथ में आ गई है, जो केवल मंचीय भाषणों और सोशल मीडिया उपस्थिति तक सीमित हैं? क्या स्थानीय स्तर की जमीनी हकीकतों को दरकिनार कर केवल ऊपर के निर्देशों पर राजनीति की जा रही है? टिकट वितरण को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं।
पार्टी ने जिन प्रत्याशियों को मैदान में उतारा, क्या वे वाकई स्थानीय समर्थन और स्वीकार्यता रखते थे? कई स्थानों पर यह चर्चा रही कि पार्टी ने जमीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर कुछ चेहरे थोप दिए, जो क्षेत्र की आवश्यकताओं और मतदाताओं की सोच से मेल नहीं खाते थे। इन चुनावों में भितरघात की संभावनाओं को भी नकारा नहीं जा सकता। कई कार्यकर्ताओं ने भीतर ही भीतर अधिकृत प्रत्याशियों के खिलाफ काम किया, या समर्थन देने से कतराते रहे।
कुछ स्थानों पर तो यह भी आरोप लगे हैं कि अंदरूनी असहमति के चलते मतों का बंटवारा हुआ और विपक्षी उम्मीदवारों को अप्रत्याशित बढ़त मिली। पार्टी की इस शर्मनाक हार को लेकर सोशल मीडिया पर भी तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। कार्यकर्ता सवाल कर रहे हैं कि जब सांसद, विधायक और मंत्री तक मैदान में थे, तब इतनी बड़ी हार क्यों हुई? क्या केवल चेहरा बदलने से चुनाव जीते जाते हैं या ज़रूरत है ठोस रणनीति और समर्पित जमीनी संगठन की? प्रतापपुर, दोपहरिया, कुरैय्या और खानपुर पूर्वी जैसी अहम सीटों पर भाजपा के प्रत्याशियों की करारी हार यह संकेत देती है कि जनता के बीच पार्टी की पकड़ कमजोर हो चुकी है।
स्थानीय मुद्दों से दूरी, संगठन में समन्वय की कमी और गुटबाजी जैसे कारण पार्टी के लिए घातक साबित हो रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो यह परिणाम भाजपा के लिए एक चेतावनी है यदि समय रहते नेतृत्व, नीति और संगठन में बदलाव नहीं किया गया तो आने वाले चुनावों में स्थिति और भी चुनौतीपूर्ण हो सकती है। पंचायत स्तर पर हार का सीधा असर आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों पर पड़ सकता है।
बहरहाल, अब पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के सामने सबसे बड़ी चुनौती है हार की समीक्षा कर जिम्मेदारों को चिन्हित करना और यह तय करना कि आगे की रणनीति क्या होगी। कार्यकर्ताओं में विश्वास फिर से कायम करना, जमीनी मुद्दों को गंभीरता से लेना और प्रत्याशियों के चयन में पारदर्शिता लाना संगठन को पुनर्जीवित करने के लिए अनिवार्य हो गया है।
